कैलाश पर्वत… जन्म और मरण के चक्र से दूर, धरती का वो स्थल जहां मोक्ष बसता है. वहां न हर्ष का निवास है, न विषाद की छाया. जहां लोभ-मोह, क्रोध-अहंकार जैसे विकारों की कोई जगह नहीं. वह कैलाश, जहां महादेव समाधि में होते हैं, नंदी उनकी सेवा में होते हैं और जहां रहकर देवी पार्वती सृष्टि का पोषण करती हैं, लेकिन आज स्थिति कुछ अलग थी. महादेव तो समाधि में थे, पर देवी पार्वती विचलित थीं. विचलित इसलिए, क्योंकि उनकी पुत्री अशोक सुंदरी तपस्या के लिए चली गईं थीं और पुत्र कार्तिकेय पिता से मतभेद के कारण कैलाश छोड़कर चले गए थे.
सारे संसार को अपना परिवार, अपनी संतान मानने वाले महादेव के खुद के परिवार में ऐसा बिखराव… यही विचार रह-रहकर मां पार्वती को परेशान कर रहे थे. वह आईं तो थीं मानसरोवर में स्नान के लिए, लेकिन अपनी ही कल्पनाओं में खोई रहीं.
वह सोचती रहीं कि काश! मेरा एक पुत्र ऐसा भी होता, जो मुझे मां होने का संपूर्ण आनंद देता. मैं उसकी नटखट शरारतें देख-देखकर मुस्कुराती, वह कैलाश पर मेरे साथ रहता, मेरा लाड़ला-मेरा प्यारा होता. ऐसा ही सोचते-सोचते देवी पार्वती ने हल्दी-चूर्ण के उबटन से एक बाल प्रतिमा बनाई और कल्पवृक्ष के नीचे उनकी ये कल्पना साकार हो गई, वह प्रतिमा जीवंत उठी और उसने किलकते हुए देवी पार्वती को मां कहकर पुकारा. इस तरह जो महागणेश अभी तक शुभ कार्य की प्रथम क्रिया में शामिल थे, मंगल कलश की स्थापना में विराजते थे, यज्ञ की प्रथम आहुति के लिए आमंत्रित प्रथम देव थे, जो सिर्फ आस्था और भावना में शामिल थे, वह साकार रूप में शिव-पार्वती पुत्र बनकर बाल रूप में इस तरह प्रकट हुए थे. उस दिन भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि थी और यही तिथि गणेश चतुर्थी कहलाने लगी.
शिव पुराण, स्कंद पुराण और गणेश जी को समर्पित प्राचीन अथर्वशीर्ष संहिता में गणेशजी के जन्म और गणेश चतुर्थी के मनाए जाने और इसके महत्व की यही कथा थोड़े बहुत अलग-अलग संदर्भों के साथ दर्ज है. लोक कथाओं में गणेश जन्म और उत्पत्ति का ऐसा ही किस्सा मिलता है, जो दानी-नानी की कहानियों में शामिल रहा है और पूजा पद्धतियों का भी हिस्सा बना हुआ है.
गणेशजी और गणेश चतुर्थी की मान्यता भारत के हर कोने में हैं. सामान्य पूजा में भी सबसे पहले उनका आह्नान किया जाता है. वह बुद्धि-विद्या के ही साथ धन-संपदा और शुभता के न सिर्फ प्रतीक हैं, बल्कि उसके दाता भी माने जाते हैं. गणेशजी की पूजा किसी भी शुभ कार्य के पूरी तरह से संपन्न होने के लिए जरूरी मानी जाती है. इसके लिए एक श्लोक के जरिए उनका आह्वान किया जाता है और उनसे विघ्न दूर करने के साथ ही कार्य संपन्न होने तक उसकी निगरानी भी करते रहने की प्रार्थना की जाती है.
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्।।
जम्मू-कश्मीर से लेकर देश की दक्षिणी सीमा तक जहां भी कोई पूजन विधान होता है, इस गणेश मंत्र के साथ उनका आह्वान किया जाता है. अब सवाल उठता है कि जब गणेशजी की मान्यता पूरे देश में एक जैसी ही है तो गणेश चतुर्थी का प्रभाव महाराष्ट्र और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में क्यों अधिक है? हालांकि अब बीते 10 सालों में यह पर्व उतने ही विराट और विशाल तरीके से उत्तर भारत में भी मनाया जाने लगा है, लेकिन जबसे इस उत्सव ने राज्य और भौगोलिक सीमाएं तोड़ी हैं तब से ही इसे लेकर कुछ सवाल उठने लगे हैं और जिन्हें लेकर अलग-अलग तर्क दिए जा रहे हैं.
सबसे पहले ये जानिए कि महाराष्ट्र में इस पर्व के बड़े पैमाने पर मनाने की वजह क्या है? असल में दक्षिण भारत के हिस्सों में गणेश जी की मान्यता काफी प्राचीन है. इसके वर्णन पौराणिक कथाओं में तो हैं हीं, इसके साथ ही कई लोक और दंतकथाएं भी प्रचलित हैं. कहते हैं कि यक्षों के राजा और धनपति कुबेर ने अपने घमंड में आकर एक बड़े भोज का आयोजन किया था. इस आयोजन में वह शिव-पार्वती को बुलाने गए और कहा कि, मैंने एक से एक स्वादिष्ट पकवान बनवाए हैं. कई पकवानों का तो यहां कैलाश मिलना संभव भी नहीं हैं. शिवजी कुबेर के भीतर छिपे इस अहंकार को पहचान गए. उन्होंने कहा कि ‘मैं तो ठहरा संन्यासी किसी स्वाद को क्या पहचानूंगा, लेकिन आप बाल गणेश को ले जाइए. बालक हैं और तरह-तरह के व्यंजन भी पसंद करते हैं. इन्हें मन भरकर खिलाइये. इस पर कुबेर ने गणेश जी को देखकर कहा, ये छोटा बालक, इनका तो एक-दो पकवान चखने में ही पेट भर जाएगा.
यहां बता दें कि कुबेर का महल लंका में ही था, जिसे बाद में रावण ने हथिया लिया था. लंका उस समय तक यक्षों की नगरी हुआ करती थी, जिसे रावण ने कुबेर से छीन लिया था और फिर उसे रक्ष संस्कृति (राक्षस संस्कृति) में बदल दिया था. गणेशजी कुबेर की लंका में गए और उन्होंने वहां उसका पूरा भंडार खाली कर दिया और इस तरह कुबेर का घमंड तोड़ा.
कुबेर के घर भोजन करने जाने की उनकी ये कथा श्रीगणेश के दक्षिण प्रवास की पहली कथा मानी जाती है, इसी दौरान से उनकी पूजा-अर्चना दक्षिण के प्रांतों में शुरू हुई थी. श्रीलंका में श्रीगणेश को आज भी ‘पिल्लईयार’ नाम से पूजा और जाना जाता है. पिल्लई का अर्थ है बच्चा और यार शब्द अय्यर से बना है जिसका अर्थ है स्वामी. तमिल में पिल्लईयार का अर्थ हुआ, महान बच्चा या बच्चा स्वामी. ये नाम श्रीगणेश का महानता से जुड़ाव दिखाता है.
गणेशजी की किसी भी पूजा में प्रतीकों की बहुत मान्यता रही है. मदार पौधे की जड़ में उनका वास माना जाता है और संतान प्राप्ति के लिए मदार की जड़ों की पूजा की जाती है. हल्दी को संस्कृत में हरिद्रा कहते हैं और यह भी गणेश जी का एक नाम है, इसलिए पूजा में हल्दी की गांठें रखकर गणेशजी की मान्यता के तौर पर उनकी पूजा की जाती है. सुपारी को भी गणेश जी का प्रतीक माना जाता है. गणेशजी की एक और प्रसिद्ध पूजा है सकट चौथ, जिसे संकट चौथ और संकष्ठी चतुर्थी भी कहा जाता है. व्रती महिलाएं इस पूजा में लकड़ी के आसन पर घी से गणेश चिह्न बनाती हैं. कई जगहों पर हल्दी के पाउडर से गणेश प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती हैं और फिर पूजा के बाद इस प्रतिमा का जल में विसर्जन कर उसे घरों में पवित्र मानकर छिड़का जाता है, ताकि घर में सकारात्मक ऊर्जा (पॉजिटिव एनर्जी) बनी रहे.
महाराष्ट्र और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में भाद्रपद मास की गणेश चतुर्थी के दिन पूजन करने की मान्यता बहुत प्राचीन रही है. हालांकि लंबे समय तक ये सिर्फ घर में होने वाली एक व्रत-पूजा थी, जिसमें मिट्टी-हल्दी, दूध से हथेली के आकार की गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती थीं और फिर पूरे परिवार के सदस्य मिलकर उनकी पूजा करते थे. छत्रपति शिवाजी के समय में मराठा साम्राज्य गणेश चतुर्थी को एक उत्सव की तरह मनाने लगा था. पेशवाई के समय भी गणेश उत्सवों के बड़े आयोजनों के उदाहरण मिलते हैं, हालांकि ये तब तक घर और मंदिरों तक ही सीमित थे.
स्वतंत्रता आंदोलन के समय देश में इसके समानांतर ही धार्मिक आंदोलनों की लहर भी जारी थी. जहां उत्तर भारत में श्रीराम-श्रीकृष्ण की लीलाओं-कहानियों के आयोजन बड़े पैमाने पर होने लगे थे, ठीक इसी तर्ज पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव को भी सार्वजनिक तौर पर लोगों के बीच ले जाने का विचार रखा. उन्होंने इस आयोजन को बड़े पैमाने पर मनाने की शुरुआत की. गणेश पूजा की शुरुआत पुणे से हुई और तब से ही पंडाल सजाकर उसमें प्रतिमा स्थापित करके गणेश चतुर्थी आयोजन किया जाने लगा. धीरे-धीरे मूर्ति निर्माण स्थल से पंडाल तक प्रतिमा का लाया जाना भी एक उत्सव बन गया और फिर गणेश विसर्जन तो ऐसा बड़ा उत्सव बन गया कि लाखों-लाखों लोगों की भावनाएं इससे जुड़ गईं. गणेश पंडाल क्रांतिकारियों के मिलने-जुलने और खास बैठकों का भी जरिया बने. इसके साथ ही आमजन को भी बड़े-छोटे का भेद मिटाकर एक साथ लाने का उद्देश्य गणेश उत्सव ने पूरा किया. इस तरह गणेश चतुर्थी और गणेश उत्सव महाराष्ट्र राज्य के सांस्कृतिक पहचान बन गए.
महाराष्ट्र में व्यापक तौर पर गणेश पूजा की वजह एक पौराणिक कथा और इससे उपजी लोककथा का परिणाम है. कथा के मुताबिक शिवपुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया था, लेकिन शिवजी ने उनकी प्रशंसा नहीं की. वहीं, जब अन्य देवता तारकासुर के वध के बाद भयमुक्त होकर कैलाश पहुंचे तो महादेव की जय-जयकार करने लगे. तारकासुर ने स्वर्ग पर आक्रमण कर देवताओं को हरा दिया था, इस तरह जिसने उसका वध किया स्वर्ग पर उसका अधिकार होना चाहिए, लेकिन शिवजी ने कार्तिकेय को सिर्फ देवसेनापति ही बनाया, इंद्रपद नहीं दिया. इससे कार्तिकेय, बहुत दुखी हुए और कैलाश छोड़कर चले गए. बाद में जब बाल गणेश का प्राकट्य हुआ तो वह माता पार्वती की चिंता दूर करने के लिए बड़े भाई से मिलने के लिए दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े. उनकी मुलाकात समुद्र तट पर जहां हुई, वहीं से गणेशजी की पूजा अतिथि के तौर पर शुरू हुई.
कहते हैं कि दक्षिण की वह भूमि कई वर्षों से अकाल से पीड़ित थी, गणेश जी के आने के बाद वहां वर्षा हुई और धन समृद्धि भी आई. दक्षिण के राज्यों में कार्तिकेय बहुत ही अधिक पूजनीय हैं. वह उनके रक्षक और स्वामी कहलाते हैं. अपने स्वामी के छोटे भाई के आगमन पर लोगों ने उनका राजा की तरह सम्मान किया. गणेश जी ने 10 दिन वहां निवास किया. इसलिए वह दक्षिण के राज्यों में अतिथि की तरह पूजे जाते हैं और लोग उनसे अगले वर्ष फिर से आने की कामना करते हैं.
ये तो रही गणेश पूजा और उत्सव की बात, लेकिन सबसे अधिक विवाद विसर्जन को लेकर है. असल में महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के साथ विसर्जन भी एक उत्सव है, जिसमें बड़ी संख्या में लोग उमड़ते हैं. अब गणेश उत्सव का फैलाव उत्तर भारत तक हो गया है, ऐसे में कहा जाता है कि उत्तर भारत में गणेश विसर्जन करना सिर्फ महाराष्ट्र की नकल है, क्योंकि गणेश जी महाराष्ट्र में अतिथि बनकर जाते हैं इसलिए वहां उनकी विदाई के प्रतीक के तौर पर विसर्जन करते हैं, लेकिन वह लौटकर तो उत्तर भारत में ही आते हैं, इसलिए जब उनका निवास ही यहां है तो विदाई कैसी? पौराणिक आख्यानों के आधार पर गणेश जी उत्तर दिशा के लोकपाल-दिग्पाल भी हैं. इसलिए लोगों का तर्क एक बारगी सही भी है, लेकिन पूरी तरह नहीं.
अगर आप स्थापना के कॉन्सेप्ट को मानते हैं तो विसर्जन उसका एक जरूरी अंग भी है. स्थापना और विसर्जन का चक्र बिल्कुल वैसा ही जैसा कि जन्म और मृत्यु, सुख और दुख और काल गणना का चक्र. इसलिए अगर देवता की स्थापना की जा रही है तो उसका विसर्जन भी किया जाता है. यह पूजन विधान का अनिवार्य अंग है. इसकी एक बानगी घरों में होने वाले पूजा अनुष्ठान भी हैं, जब हवन आदि होने के बाद देवताओं से उनके अपने स्थान पर जाने का आह्वान किया जाता है.
यान्तु देवगणा: सर्वे पूजामादाय मामकिम्।
इष्टकामप्रसिद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च।।
अर्थः हे देवगणों, आप सभी की मैंने पूजा कि, जैसी मुझे आती थी. आप से प्रार्थना है कि मेरी पूजा को स्वीकार करें और अपने स्थान पर जाएं. वहां से मेरी रक्षा करते रहें, मेरी ईष्ट कामना को पूरा करें और आगे भी मेरे आह्नान को स्वीकार करके मेरे निवास पर आते रहें. इस मंत्र को बोलकर देवताओं का नाम लेकर और उनका बीज मंत्र बोलते हुए उनका विसर्जन किया जाता है.
उत्तर भारत में गणेश-लक्ष्मी को लेकर मान्यता है कि वह सभी के घरों में निवास करते हैं और उनके रूप में हर किसी की आर्थिक संपन्नता बनी रहती है. इसीलिए गृहस्थ लोगों के घरों में गणेश-लक्ष्मी को हमेशा ही स्थापित करके रखा जाता है, उनकी विदाई दीवाली जैसे मौकों पर तभी की जाती है, जब उसी दिन नई प्रतिमा की स्थापना की जाती है. घरों में गणेश-लक्ष्मी की प्रतिमा हथेलियों से भी छोटी होती हैं और जो कि घरों में देव प्रतिमा रखने का शास्त्रीय नियम भी है.
पंडालों में प्रतिमाएं काफी बड़े आकार की होती हैं और उनकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती है, उनका सिर्फ पूजन किया जाता है. बिना प्राण प्रतिष्ठा के ऊंची प्रतिमाओं को रखना सिर्फ सजावट की तरह होता है, वह देवता और उनसे जुड़ी कथा की एक झांकी होती है. देव प्रतिमाएं सजावट के लिए नहीं होती हैं. इसके अलावा अगर शोडषोपचार पूजन विधि से पूजन किया गया है तो शास्त्रीय आधार पर उसका विसर्जन अनिवार्य हो जाता है.
अगर गणेश जी को उत्तर भारतीय देवता मानकर उनका विसर्जन न किया जाए तो फिर नवरात्र के बाद मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन किस आधार पर किया जाता है? क्योंकि देवी का निवास तो सारी प्रकृति ही है. ऋग्वेद भी ईश्वरीय सत्ता को आस्था का विषय मानता है और यह कहता है कि इसका स्वरूप कैसा भी हो सकता है. यह परमसत्ता के प्रति विश्वास की बात है. वह कहता है, एकं सत् विप्रः बहुधा वदंति, यानी कि सत्य एक ही है, जिसे ज्ञानी जन कई तरीके से बताते हैं. विसर्जन प्राकृतिक सत्य का भी प्रतीक है, जो आने-जाने, जन्म-मरण, हमेशा आगे बढ़ते रहने के समय चक्र का प्रतीक है. विघ्नहर्ता गणपति, मां दुर्गा, देव कार्तिकेय या अन्य कोई भी दैवीय नाम इसी सत्य के एक रूप हैं, विवाद के विषय नहीं.
सबसे बड़ी बात कि, विसर्जन देव प्रतिमा का नहीं होता है, अगर हम सच्चे मन से भक्ति कर रहे हैं तो इन 10 दिनों तक हम देवता को अपने विकार ही अर्पित करते हैं. मोदक हमारी सांसारिक लालसा का प्रतीक है, जिसे हम भगवान को अर्पित करते हैं. सिंदूर हमारे अभिमान का प्रतीक है, जिसे हम भगवान को अर्पित करते हैं. दूर्वा हमारे क्रोध का प्रतीक है, जिसे हम गणपति के चरणों में अर्पित करते हैं और जब हम विसर्जन करते हैं तो देव प्रतिमा के साथ इन्ही विकारों का विसर्जन करते हैं. ये विकार इतने प्रबल होते हैं कि उन्हें खींचकर ले जाने की शक्ति महागणपति जैसे विघ्नहर्ता के ही पास होती है. इसलिए गणेशजी हमारे लिए विघ्नविनाशक कहलाते हैं.