श्रीलंका में अनुरा कुमारा दिसानायके नए राष्ट्रपति हैं. (Photo- Getty Images)


श्रीलंका के दिवालिया होने के बाद ये पहला राष्ट्रपति चुनाव था, जिसमें अनुरा कुमारा दिसानायके ने जीत हासिल की. ये पहले मार्क्सवादी लीडर हैं जो इस देश में इतने बड़े पद तक पहुंचे. श्रीलंका पिछले दो सालों से राजनैतिक के साथ-साथ आर्थिक उठापटक से भी जूझ रहा है. अब प्रेसिडेंट दिसानायके पर दोहरी जिम्मेदारी होगी. लेकिन साथ ही ये बात भी है कि भारत और चीन को लेकर उनका रवैया कैसा रहेगा, जबकि इससे पहले उनकी पार्टी जेवीपी कई बार भारत के खिलाफ बोल चुकी. 

कौन हैं नए राष्ट्रपति

56 साल के दिसानायके मार्क्सवादी विचारधारा के हैं, जो अक्सर मजदूरों और निम्न-मध्यमवर्ग के साथ खड़े होने की बात करते रहे. नेशनल पीपल्स पावर (एनपीपी) से जीतकर आए नेता वामपंथी रुख रखते हैं, जो कि कोलंबो के लिए भी नई बात होगी. असल में इससे पहले देश में चुनी हुई सरकारें दक्षिणपंथी सोच वाली रहीं. यहां तक कि देश को लगभग डुबो देने वाले गोयबाया राजपक्षे भी राइट विंग सोच वाले माने जाते थे. उनके कार्यकाल में जब देश में आर्थिक भूचाल आया हुआ था तो दिसानायके उनके कट्टर विरोधी बनकर उभरे. यहां तक कि वे करप्शन को हटाने वाले चेहरे की तरह देखे जाने लगे और इसी उम्मीद में जनता ने उन्हें चुना. 

दक्षिणपंथ से सीधे वामपंथ पर आना देश के लिए एक बड़ा बदलाव होगा. लेकिन बात श्रीलंका तक ही खत्म नहीं हो जाती, इसका असर अड़ोस-पड़ोस पर भी होगा, खासकर भारत और चीन पर. 

दोनों ही देशों के लिए श्रीलंका बेहद अहम रहा. इसके कई कारण हैं. 

– हिंद महासागर में श्रीलंका ऐसी जगह बसा हुआ है, जो समुद्री व्यापार के सेंटर में आता है. पश्चिम और पूर्वी एशिया को जोड़ने वाले इस देश से ग्लोबल स्तर पर व्यापार होता रहा. चीन और भारत दोनों ही यहां अपनी मौजूदगी को सुरक्षित रखना चाहते हैं. लेकिन चीन अपने विस्तारवादी रवैए के साथ एक कदम आगे रहते हुए वहां के हंबनटोटा पोर्ट पर भी लगभग बस चुका है. 

– महासागर के इस हिस्से का सामरिक महत्व भी है. चूंकि श्रीलंका भारत के दक्षिणी तट के करीब है इसलिए भारत भी उससे बनाए रखना चाहता है. ये नौसैनिक रणनीति में काफी काम आ सकता है. 

– दोनों ही देशों ने यहां पर भारी निवेश कर रखा है. हालांकि भारत का रवैया नेबर फर्स्ट का रहा, वहीं चीन भारी पैसे तो लगाता है लेकिन साथ में भारी ब्याज भी वसूलता है. अब भी उसने यहां के इंफ्रा पर काफी कुछ लगाया हुआ है. 

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भारत या चीन में किसका पलड़ा रहेगा भारी

दिसानायके के सामने कई चुनौतियां है, जिसमें सबसे बड़ी है- साल 2022 में आई अस्थिरता को दूर करना. लेकिन साथ ही साथ उनपर फॉरेन पॉलिसी में संतुलन का भी दबाव रहेगा. इससे पहले की सरकारों की विदेश नीति भारत और चीन दोनों को समान पलड़े पर रखने की कोशिश तो करती थी लेकिन कहीं न कहीं भारी निवेश और उसपर कर्ज के चलते चीन का पलड़ा भारी होता रहा. 

अब मामला और अलग होगा. इसकी एक वजह सेंटर की राजनैतिक विचारधारा भी है. श्रीलंकाई राष्ट्रपति अपने वामपंथी विचारों के लिए जाने जाते हैं, वहीं हमारे यहां सत्ता का झुकाव दक्षिणपंथ की तरफ माना जाता है. ऐसे में विचारधारा बीच में आ सकती है, ये डर तो बना ही रहेगा. 

हालांकि श्रीलंका में सत्ता में आए गठबंधन एनपीपी की नेशनल एग्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्य अनिल जयंता इससे इनकार करते हैं. द वीक में छपी रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा कि हमारी पार्टी और नेता भारत से जुड़ना चाहते हैं. वो हमारा पड़ोसी होने के साथ सुपरपावर भी है. हाल ही हमें एक एग्रीकल्चर समिट के लिए भारत से न्यौता मिला, जिसमें हम दिल्ली और केरल भी गए. हमारे लीडर अपने देश की इकनॉमी को स्थिर करने के लिए सारी बड़ी ताकतों के साथ काम करना चाहते हैं. 

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कब-कब दिखा भारत-विरोधी रवैया

तमाम पॉजिटिव चीजों के बीच कई बातें खटकने वाली भी हैं. जैसे नए राष्ट्रपति की पार्टी जेवीपी देश की बड़ी वामपंथी पार्टी रही, जिसने कई बार भारत विरोधी बयान दिए. साल 1987 में भारत-श्रीलंका समझौता के तहत भारतीय शांति सेना वहां गई थी ताकि तमिल विद्रोहियों और श्रीलंकाई सेना के बीच चल रही लड़ाई को रोका जा सके. वहीं जेवीपी ने इसे देश में बाहरी हस्तक्षेप मानते हुए काफी बखेड़ा किया था. यहां तक कि भारतीय सेना को आक्रमणकारी तक कह दिया था. आगे चलकर इस पार्टी ने भारत पर तमिल बागियों के समर्थन का भी आरोप लगाया था. उसका आरोप था कि भारत जानकर अपनी पैठ बनाए रखने के लिए विद्रोहियों को उकसा रहा है. 

विचारधारा के लिहाज से देखें तो ये चीन के ज्यादा करीब

जेवीपी ने शुरुआत से माओवादी रुख रखा जो चीन के नेता माओ जेडॉन्ग की देन थी. उसने मौके-बेमौके चीन की पॉलिसी की तारीफ की, चाहे वो राजनैतिक हो या आर्थिक. उसने पश्चिमी असर का भी विरोध किया. चीन भी अक्सर अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी प्रभाव को बुरा-भला कहता रहा. तो ये कड़ी दोनों को जोड़ रही है.

भारत बना रहा अच्छा दोस्त

लेकिन केवल इन्हीं बातों के आधार पर नहीं माना जा सकता कि नई सरकार भारत से छिटक सकती है. इसके पीछे भारत की नेबर-फर्स्ट पॉलिसी भी है. दो साल पहले श्रीलंका में जैसी अस्थिरता आई, और जिस तरह से भारत ने बिना शर्त मदद की थी, उसे नजरअंदाज करना आसान नहीं. इसके अलावा भारत की ग्लोबल पैठ भी जैसे बढ़ी है, उससे पड़ोसियों को ये यकीन भी है कि उनके यहां तनाव आने पर भारत ग्लोबल स्तर पर भी मदद दिलवा सकता है, या उनकी पैरवी कर सकता है.

मालदीव इसका एक उदाहरण है. वहां राष्ट्रपति पद संभालने के बाद मोहम्मद मुइज्जू ने भारत-विरोधी तेवर दिखाए थे. यहां तक कि इंडिया आउट कैंपेन शुरू कर दिया था. अब दोबारा वो ट्रैक पर आ चुका है. हाल ही में वहां प्रेसिडेंट ऑफस से बयान आया कि मुइज्जू जल्द ही भारत यात्रा पर भी आ सकते हैं. इस बीच भारत ने जरूरत में सख्ती दिखाते हुए भी मालदीव को एकदम से दरकिनार नहीं कर दिया, बल्कि मदद का भरोसा ही दिया. 

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