मैं ट्राम हूं… कोलकाता की ट्राम… कहीं सड़क के बीच, कहीं किनारे, सीधी तो कहीं आड़ी-तिरछी स्टील की समानांतर रेखा पर पहियों के बल मैं कुछ ऐसे दौड़ती नजर आती, जैसे किसी मस्तमौला फकीर से यारी कर ली हो और फिर हम दोनों गलबहियां करते अपनी ही मस्ती में कुछ गुनगुनाते चले जा रहे हों. जैसे कि ये गुनगुनाना ही हमारे जिंदा होने की निशानी है. इस गुनगुनाने में कोई संगीत नहीं, लेकिन अगर हम गुनगुनाए नहीं तो ऐसा लगे कि जैसे संगीत ने शहर से तौबा कर ली हो.
मैं दिखती हूं तो ट्रेन जैसी, लेकिन ट्रेन की छुक-छुक, धक-धक, धुक-धुक, धड़क-धड़क, पों… से बिल्कुल अलग मेरी अपनी एक अलग लय है, अपनी ही एक धुन और अपना ही एक अलग अलहदा अंदाज. सड़क पर जमा भीड़-भाड़ के बीच हर आम और खास के अगल-बगल से मैं बड़ी ही जहनीयत के साथ गुजर गई. न रुकी न थकी, न मैंने किसी को डराया और न मुझसे कोई डरा. मैं एक ओर से आती दिखी पर सामने से जा रहे लोग न तो ठिठककर पीछे हुए और न ही उन्होंने घबराकर पटरियां पार की. किसी ने अपनी चाल में कोई बदलाव नहीं किया.
आप ये पूरा नजारा देखेंगे तो आपको लगेगा कि जैसे कोई बिजली के एक खटके (स्विच) से इस पूरे नजारे को चला रहा है. जब खटका खुलता (स्विच ऑन) है तो नजारे चल पड़ते हैं और ये तब रुकेंगे, जब खटका बंद (स्विच ऑफ) होगा. या फिर ऐसा कहिये के कोलकाता के लोगों ने 150 साल पुरानी मुझ ट्राम के साथ अपनी आत्मा ऐसे जोड़ ली थी, कि वो जैसे इस ज्ञान के ब्रह्म ज्ञानी हो गए हों कि ट्राम कितनी देर में कितनी दूर तय कर लेगी.
पैदल चलते हुए कितनी जल्दी इसके आगे से निकला जा सकता है और कितनी ही तेजी से चलती ट्राम से उतरा जा सकता है. मैं यानी ट्राम और कलकत्ता दोनों आपस में ऐसा घुल मिल चुके हैं कि कलकत्ता साल 2001 में जरूर कोलकाता हो गया, लेकिन मैं वैसी की वैसी रही. लोहे का डब्बा, खटारा, लकड़ी की बेंच वाली गाड़ी. मुझे छोटे बच्चे देखकर चिल्लाते ट्रेन-ट्रेन, वो देखो ट्रेन… फिर उनकी मम्मियां बतातीं.. अरे वो ट्रेन नहीं, ट्राम है. सच बताऊं, अपनी अलग नाम और पहचान सुनकर मैं खुशी से फूल जाती, फिर धीरे-धीरे खो जाती हूं अपनी उन यादों में जब मेरा दौर भी सुनहरा हुआ करता था.
साल 1873 में मुझे सियालदह से आर्मेनियन घाट तक घोड़े खींचते हुए ले जाते थे. फिर 1880 में दौर आया मीटर गेज ट्राम सर्विस का और मेरे लिए कलकत्ता ट्रामवेज कंपनी बनाई गई. अब मैं कलकत्ता की शान बनने के सफर पर निकल पड़ी. मैंने लगभग 20 सालों तक गंगा मैया की लहरों संग कदमताल की और देखते-देखते आया साल 1902, जब घोड़ों ने मुझसे विदा ली और अब मैं बिजली से चलने वाली गाड़ी बन गई. फिर तो मैं फर्राटा भरने लगी, श्यामबाजार से हाई कोर्ट, फिर निमतला और सियालदह से डलहौजी स्क्वायर, फिर धर्मतला से कालीघाट, कहां से से चली मैं कहां को गई मैं, थे मुसाफिर सभी साथी मेरे.
मैं दोस्तों की टोलियों संग उनके हुड़दंग में शामिल रही. मैं दफ्तर वाले बाबुओं की सेवा में हाजिर रही. कितनी दफा मेरी लकड़ी की सीटों पर बनी क्रांति की योजनाएं और मैंने कान लगाकर सुने हैं सियासी षड्यंत्र भी. मुझे बहुत अच्छा लगा जब प्रेमियों ने चाहा कभी खत्म न होने वाला अंतहीन सफर, और मेरी धीमी चाल से उन्हें मिला साथ रहने का भरपूर समय. तब के भागते कलकत्ता में भी मैंने नौजवानों को दी है थोड़ी ठहराव वाली जिंदगी, कि वो दो घड़ी सुस्ताकर सोच लें खुद के बारे में भी. शर्ट की बांह से पोंछ लें अपने माथे का पसीना और खिड़की की आती हवा में खोज लें थोड़ा सुकून, ले लें जरा सी सांस और फिर से चल पड़ें अपनी मंजिल की ओर.
कहते हैं न कि हर शहर की अपनी एक छवि होती है, अपना एक चेहरा होता है. कोलकाता के हर चित्र और चलचित्र में मैं हूं. सिटी ऑफ जॉय कहलाने वाले शहर के कैनवस पर मैं उतनी ही जरूरी हूं, जैसे बनारस में गंगा घाट, जैसे राजस्थान में रेत के मैदान, जैसे महालया में सजे-धजे दुर्गा पंडाल और फिर विसर्जन में लाल-सफेद साड़ी पहन सिंदूर खेला करतीं महिलाएं.
मैं इस शहर की हंसी-खुशी की वजह हूं. मैं वो हूं जिसमें वो जोगी भी चढ़ आया, जो इकतारे पर गुरुदेव रवींद्र की लिखी सबसे प्रसिद्ध बाउल ‘एकला चलो रे’ गुनगुना रहा था. उसके साथ सफर में शहर का वो शख्स भी शामिल था, जिसे हुक्मरानों ने हर दफा ‘अंतिम पायदान’ पर खड़ा आदमी बताया. जिसके लिए उन्होंने दावे तो बहुत किए, पर असल में क्या किया, उसका कोई लेखा-जोखा नहीं. तेज भागती, फर्राटा भरतीं टैक्सियों, निजी कारों और सफर के कई महंगे साधनों के बीच उसे राहत मैंने ही दी, क्योंकि मेरा किराया आज भी एक चाय के कप से कम ही है. यानी 7 से 8 रुपये. 1990 का दौर था तो मेरे दो स्टॉप के बीच सिर्फ चवन्नी (25 पैसे) देकर सफर किया जा सकता था. मैं आदमी की जेब का हाल जानती थी इसलिए किफायती भी थी.
इस किफायत ने ही मुझे इस काबिल बनाया कि जब भी किसी शाह कार को कोलकाता का खाका खींचना हुआ, तो उसने पहले मुझे चुना. सत्यजित रे की 1963 में आई फिल्म महानगर देखिए. कोलकाता जैसे बड़े शहर में बसने वाली मिडिल क्लास फैमिली की उधेड़बुन को उन्होंने ट्राम के सहारे ही पर्दे पर उतारा. इस महान बंगाली फिल्म का ओपनिंग सीन ही ट्राम की केबल से उठती चिंगारी है, फिल्म देखें तो समझ आएगा कि ये चिंगारी लीड कैरेक्टर के भीतर चल रहे उधेड़बुन की चिंगारी है. पर्दे पर जिस तरह से लगभग डेढ़ मिनट तक सिर्फ ट्राम का केबल ही दिखाया गया, ये वो ऊबन थी, जिसे दर्शकों ने खुद ब खुद महसूस कर लिया और जान गए कि फिल्म में जो शादीशुदा जोड़ा दिखाया जा रहा है, उनका जीवन कितना नीरस, कितना उदासीन है.
इसके उलट सत्यजित रे की ही अपुर संसार (अपू ट्रायलॉजी) में ट्राम वो जगह है, जहां एक नौजवान अपु के लिए सपनों की दुनिया है. जिस तरह ट्राम उसके सामने से गुजर जाती है, वह सत्यजित रे का दर्शाया गया सबसे अनोखा रूपक है कि कैसे धीरे-धीरे समय आगे बढ़ चला है. ये ठीक ऐसा ही अहसास है कि ‘जैसे कल की ही बात हो’. फिल्म को 1960 के लंदन फिल्म फेस्टिवल में सदरलैंड अवार्ड फॉर बेस्ट ओरिजिनल एंड इमेजिनेटिव मिला था.
कलमबाजों ने भी मेरी तारीफ में काफी कलमें खाली की हैं. खुद गुरुदेव मेरे मोह में ऐसे बिंधे कि बिना मेरे कोलकाता की कल्पना वो भी नहीं कर सके. टैगोर ने अपनी कविता ‘स्वप्न’ में मेरा कुछ ऐसा जिक्र किया है, जिसमें जब वो इस शहर की बारीकियां गिनाते हैं तो लिखते हैं कि ‘कोलकाता की सांप जैसी सड़क पर ट्राम का बलखाना’. ऐसे ही बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार, सुनिल गंगोपाध्याय, की एक कविता ‘नीरा’ है. इसमें पल-पल बदलते नीरा के चित्त के लिए ट्राम एक रूपक है.
कुल जमा ये कि मैं सिर्फ स्टील की पटरियों पर दौड़ने वाली एक डिब्बे की ट्रेन जैसी गाड़ी भर नहीं हूं. कलकत्ता से कोलकाता हो चुके शहर के लिए नॉस्टेल्जिया हूं. वो जिन्होंने कलकत्ते में कल की सुबहें और दोपहरी गुजारी हैं, और अब जिम्मेदारियों ने जिन्हें शहर से दूर कर दिया है. वो जिनकी जिंदगी में अब शाम हो चली है वह भी ढलते सूरज के साथ याद करते हैं उस दौर को जब उन्होंने लड़कपन में दोस्तों संग ट्राम में सवार होने के लिए दौड़ लगाई है.
आजतक में लैंग्वेज एडिटर केशवानंद धर दुबे मुझे याद करते हैं तो लिखते हैं कि ‘कोलकाता में ट्राम का इतिहास इतना लंबा रहा है कि 150 साल के इस दौर में तीन-तीन पीढ़ियां बदल गई हैं. 20-25 साल पहले खिदिरपुर से धर्मतल्ला तक का रूट मेरे अहसास में अब तक ताजा है. हेस्टिंग फ्लाईओवर पार होते ही जैसे ही ट्राम से नजरें खिड़कियों के बाहर जातीं तो एक तरफ इतिहास की निशानी फोर्ट विलियम तो दूसरी तरफ रेस कोर्स का लाजवाब मैदान नजर आता. घोड़ों की रेस, वहां मौजूद अस्तबल की बदबू से तंग होते लोग, फिर ब्रिगेड मैदान और रेड रोड के किनारे से होते हुए मेयो रोड तक का सफर. यहीं दाहिने प्रेस क्लब है, देर सबेर निकलते वक्त न जाने कितनी बार रात 10.30 या 11 बजे की आखिरी ट्राम ही घर पहुंचने का जरिया बनीं.’ आज दिल्ली-नोएडा में किसी सिग्नल पर रुकता हूं तो ट्राम यूं ही याद आ जाती है.’
डिप्टी एडिटर संदीप कुमार सिंह के लिए भी ट्राम हौले-हौले बढ़ती जाती वो कहानी है, जिसमें कई रोमांचक मोड़ आए हैं. वो कहते हैं कि मैं खुद को इस कहानी का किरदार जैसा महसूस करता हूं. जो इसकी चाल से कदमताल करते हुए भाग रहा हूं. इसमें दौड़कर चढ़ जाता हूं, अगले स्टॉप पर कूदकर उतर जाता हूं. अब तो ये सब पुरानी बाते हैं, लेकिन ट्राम को याद करता हूं तो लगता है कि तब जिंदगी भी मेरे हिसाब से चल रही थी. जब चाहा चढ़ लिए और जब चाहा उतर लिए.’ इतनी निश्चिंतता का अहसास कौन करा सकता है, सिर्फ शहर कोलकाता और वहां की लाइफ लाइन ट्राम’.
बात इतनी है कि मैं ट्राम सिर्फ आने-जाने का जरिया नहीं हूं. मैं एक समूचा अनुभव हूं. मेरी धीमी रफ्तार समय का पहिया है और मेरी खिड़कियों से झलकता रहा है हर रोज शहर का नया अंदाज. कोलकाता अगर शरीर है तो मैं इसकी धमनियों में बहता लहूं हूं. सुबह हूं, शाम हूं, भोले-भाले लोगों जैसी आम हूं. मैं कोलकाता की ट्राम हूं.